Saturday, August 30, 2008

संगीत का बेसिक

कल मुझे कहा गया की मैं संगीत विषयक जानकारी देने के साथ ही शास्त्रीय संगीत का बेसिक भी बताती चलू . वैसे तो मैंने अभी तक जो भी बताया हैं ,वह शास्त्रीय संगीत की वही जानकारी थी जो एक संगीत रसिक जानना चाहता हैं ,मैंने संगीत की उत्पत्ति ,राग ,वाद्य ,गायन आदि के बारे में लिखा,पर कल की टिप्पणी से मुझे लगा की अभी और बेसिक जानकारी दी जानी चाहिए ,इसलिए आज हम एकदम शुरू से शुरू करते हैं .

सभी जानते हैं की संगीत में सात स्वर होते हैं ,सा रे ग म प ध नि.इन्ही स्वरों के आधार लेकर शास्त्रीय संगीत की पुरी ईमारत खड़ी हैं ,ये सात मूल स्वर होते हैं ,साथ ही इनकी श्रुतिया उपर निचे जाने से कोमल विकृत स्वर बनते हैं ,इस प्रकार कुल १२ स्वर होते हैं,अब आप पुछंगे की ये श्रुतिया क्या हैं ?श्रुति अर्थात बारीक़ बारीक़ बारीक़ स्वर ,जब हम एक स्वर से दुसरे स्वर को जाते हैं तो बीच में कई बहुत बारीक़ स्वर भी लगते हैं ,कुल मिलकर २२ श्रुतिया बताई गई हैं ,

किसी स्वर की आवाज़ को मानले- ग को हम निचे घटाके गाते हैं . तो वह कोमल स्वर होता हैं और जिसको हम बढा कर गाते हैं जैसे -म तो वह तीव्र स्वर बन जाता हैं .

शास्त्रीय संगीत में एक चीज़ होती हैं ठाठ ,ठाठ वह जिससे राग उत्पन्न होता हैं,नाद से स्वर ,स्वर से सप्तक ,और सप्तक से ठाठ उत्पन्न होता हैं,शुध्ध विकृत सप्तक से अलग अलग ठाठ बने हैं ,और ठाठ से उत्प्प्न होता हैं राग .भातखंडे जी ने समस्त रागों के १० ठाठ बताये हैं ,जो की हैं -यमन ,बिलावल,खमाज,भैरव,पूर्वी,मारवा ,काफी ,आसावरी,भैरवी ,और तोडी .

राग के बारे में पहले भी मैंने बताया हैं ,जिसमे स्वर वर्ण हो वह राग,जैसे राग यमन का उदाहरन ले -

राग यमन में सातों स्वर लगते हैं सब स्वर शुध्ध केवल नि कोमल होता हैं,यह राग बहुत ही मधुर हैं ,इसका गायन समय रात्रि का प्रथम प्रहर हैं -लीजिये सुनिए राग यमन में एक सुंदर गीत -जीवन डोर तुम्ही संग बांधी--



अब रोज़ मैं आपको एक राग की जानकारी दूंगी ,फ़िर एकेक गायन वादन क्रियाओ से मैं आपका परिचय करवाउंगी .

Thursday, August 28, 2008

क्या ख्याल हैं आपका?



ख्याल अरबी भाषा का शब्द जिसका अर्थ हैं विचार या कल्पना. आज मेरे मन में विचार आया कि आपको अपना ख्याल बताया जाए .सुंदर,सांगीतिक,स्वरबध्द ख्याल.
जी !सही पहचाना आपने , मैं शास्त्रीय संगीत में प्रचलित ख्याल गायकी की ही बात कर रही हूँ. आप सभी ने जब भी कभी शास्त्रीय संगीत गायन सुना होगा,तो सुना होगा की गायक/गायिका कोई गीत गा रहे हैं ,कभी भक्ति रस प्रधान ,कभी श्रृंगार रस प्रधान,कभी करुण रस का,तो कभी वीर रस का .तो यही गीत शास्त्रीय संगीत में ख्याल कहलाता हैं ,गायक कलाकार अपनी कल्पना के अनुसार गीत की रचना कर ख्याल की प्रस्तुति करता हैं,उस प्रस्तुति में लय, ताल ,और स्वर सम्बन्धी सभी कल्पनाये आ जाती हैं.

अमीर खुसरो का नाम तो पक्का सुना होगा आपने ,जी जिन्हें ख्याल ,तबला,और न जाने कितनी सांगीतिक विधाओ का जन्मदाता ,अविष्कारक माना जाता हैं,पर यहाँ मैं यह बता दू की ऐसा कुछ भी नही हैं,अमीर खुसरो जी ने न तबला बनाया नही ख्याल. प्राचीन काल में हमारे यहाँ रुपकालाप्ती गान प्रचलन में था इसी पर आधारित गायन शैली को अमीर खुसरो साहब ने सिर्फ़ नाम भर दिया था "ख्याल".

संगीत से जिनका थोड़ा बहुत परिचय हैं वह जानते हैं सदारंग अदारंग का नाम,बहुत सारी ख्याल गायन की चीजों ,बंदिशों ,ख्यालो अर्थात हमारे साधारण भाषा में गीतों में इनका नाम रचनाकार के रूप में हैं,इन्होने ही ख्याल गायन का प्रचार किया जो आज भारतीय शास्त्रीय संगीत गायन का प्राण बन चुका हैं .

ख्याल दो प्रकार के होते हैं एक बड़ा ख्याल ,अब इनका नाम ही बड़ा हैं,तो यह भाई साहब जरा आराम पसंद हैं आख़िर छोटे पर रोब जो दिखाना हैं :-)तो यह भाई साहब जरा अपने डील डोल के साथ धीरे धीरे ,कम लय अर्थात सांगीतिक भाषा मैं धीमी गति , विलंबित लय में चलते हैं , इसलिए इज्जत से लोग इन्हे विलंबित ख्याल भी कहते हैं .इन भाई साहब के रचनात्मक रूप से दो अंग होते हैं सभी ख्यालो की तरह वह ---स्थायी - अंतरा.सभी ख्यालो की तरह बड़े ख्याल भाई साहब में भी ४-६ पंक्तियों की गीत रचना होती हैं .

घर में जो छोटे होते हैं ,चाहे कितने बड़े क्यों न हो जाए ?कितना नाम क्यो न कर ले ?बिचारे !!!!!!!!!!!!!!!!!!!!!!!!!!!!!!!!!!!!!!!!!!!!!!!!सब उन्हें छोटे.......................यही आवाज देकर पुकारते हैं ,हमारे शास्त्रीय संगीत गृह के छोटे ख्याल के साथ यही हुआ हैं ,सब उन्हें "छोटा ख्याल "यही कहते हैं,और तिस पर मुश्किल यह की बड़े भाईसाहब अर्थात विलंबित ख्याल साहब तो धीमे धीमे मंदर गति में आलाप करते हैं,गमक ले लेते हैं ,छोटी मोटी धीमी ताने ले लेते हैं,और चुप हो जाते हैं . असली मेहनत का काम इन छोटे जनाब को ही करना पड़ता हैं,गायक लोग इनको द्रुत लय में गाते हैं , इन्ही में बड़ी कठिन कठिन लय की ताने लेते हैं ,और कितनी ही कठिनतम गायन क्रियाए लेते हैं,बिचारे भाग दौड़ कर थक जाते हैं ,फ़िर भी छोटे ही कहलाते हैं,सभी सरल कठिन तालो से इनका दोस्ताना हैं ,पर तीनताल इनका बेस्ट फ्रेंड हैं ,वैसे एकताल आदि तालो में भी इन्हे काफी गाया जाता हैं पर तीनताल में इन्हे सबसे ज्यादा गाते हैं.

लीजिये अति आदरणीय पंडित जसराज जी ने भी इन छोटे ख्याल साहब को ही अत्युत्तम रूप से राग शंकरा ताल त्रिताल में गाया हैं ,सुनिए आदरणीय पंडित जसराज जी का गाया राग शंकरा ...











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जाने-सुने भैरवी और गत


सभी ने राग भैरवी का नाम तो सुना ही होगा,बड़ा ही लोकप्रिय राग हैं,न जाने कितने ही गीत इस राग में बनाये गए हैं,बाबुल मोरा नैहर छुटो ही जाए,कैसे समझाऊ बड़े ना समझ हो,माता सरस्वती शारदा ,लगा चुनरी में दाग छुपाऊ कैसे ?आदि गीत बड़े ही प्रसिद्ध हुए हैं .राग भैरवी सुबह का राग हैं ,पर आजकल श्रोता भैरवी सुने बिना कार्यक्रम समाप्त ही नही होने देते,चाहे कर्यक्रम रत में हो या दिन में .वैसे भैरवी राग भी ऐसा ही हैं कि किसी भी समय उतना ही अधिक कर्णप्रिय मधुर और सरस लगता हैं .यह राग भैरवी के प्रति लोगो का प्रेम दर्शाता हैं ।

राग भैरवी में सब 'रे' 'ग' 'ध' 'नि' स्वर कोमल हैं मध्यम शुध्द हैं,राग में कितने स्वर लगते हैं इस बात से यह तय होता हैं की वह राग किस जाती का हैं,क्योकि राग भैरवी में सब स्वर लगते हैं इसलिए इसकी जाती सम्पूर्ण -सम्पूर्ण हैं।

जैसे गायन में बंदिश गई जाती हैं ,वैसे ही वादन में गत बजायी जाती हैं ,गत अर्थात -किसी राग में विशेष ताल में निबध्द स्वर रचना , जिसको बजाते हुए राग का सुन्दरता पूर्ण विस्तार किया जाता हैं ,पहले गत एक लाइन की ही हुआ करती थी.पर बाद में गते स्थायी- अंतरा सहित दो पंक्तियों की भी बनने लगी,उस्ताद मसीतखान साहब ने एक विशेष प्रकार की गत बनाई ,उनकी बनाई गते धीमी(बिलम्बित )लय में निबध्द थी जो की मसितखानी गतो के नाम से प्रसिद्ध हुई ,उस्ताद रजाखान साहब ने द्रुत लय में गते बनाई जो रजाखानी बाज या गतो के नाम से प्रसिद्ध हुई ,आजकल सभी कलाकार दोनों ही गते बजाते हैं साथ ही मध्यलय गते भी बजाते हैं ,गतो में काफी परिवर्तन आए हैं ,काफी नई तरीके की गते भी बनने लगी हैं उनके बारे में विस्तार से बाद में.
लीजिये अभी सुनिए मेरे पिताजी व गुरूजी पंडित श्रीराम उमडेकर द्वारा बजायी गई राग भैरवी में द्रुत गत ।

Wednesday, August 27, 2008

कृपया मेरी सहायता करे

सभी को मेरा नमस्कार !
ब्लॉग जगत से जुड़ने के बाद बहुत अच्छा लग रहा हैं ,हर व्यक्ति के मन मस्तिष्क में न जाने कितने विचार आते हैं,इन विचारो को अपनी लेखनी से मूर्त रूप देकर किसी छंद ,कविता,लेख के रूप में प्रस्तुत करना तभी अच्छा लगता हैं जब इन्हे कोई पढने वाला हो ।
आप सभी लोगो ने मेरे दोनों ब्लॉग पढ़े और उन पर अपनी टिप्पणिया दी अत: आपकी आभारी हूँ।
'वाणी' नामक मेरा ब्लॉग जो मैंने संगीत को समर्पित किया हैं मुख्यत:शास्त्रीय संगीत को, इस ब्लॉग को शुरू करने से पहले लग रहा था ,की पॉप और रॉक के ज़माने में जब शास्त्रीय संगीतकरो को इतना संघर्ष करना पड़ रहा हैं ,संगीत और अपनी कला दोनों के लिए । क्या मेरा ब्लॉग कोई पढेगा ?क्या इस ब्लॉग मैं किसीकी रूचि होगी ?
पर जैसे अँधेरी रात में भी चंद्र और सहस्त्र तारांगणों का प्रकाश सृष्टि को आलोकित करता हैं ,वैसे ही सुधि वाचको,गुणीजनों,संगीत विषय के जिघ्यासको ने मेरे इस भ्रम को दूर कर दिया,आप सभी की इस ब्लॉग में रूचि देखकर मेरा संगीत विषय में लिखने का उत्साह दूना हुआ हैं ।
आप सभी ने मुझसे कहा की अगर लेखन के साथ ऑडियो भी सुनने मिल जाए तो विषय को समझने में आसानी होगी और अधिक आनंद आएगा । सच कहू तो मैं भी चाहती हूँ कि विषय से संबंधित गायन- वादन के ऑडियो क्वचित वीडियो आपको सुनवाऊ . पर यहाँ मुश्किल यह हैं की मुझे ब्लॉग में ऑडियो डालना नही आता ,मैंने Esinps पर जाकर ऑडियो
भी डाउन लोड किया पर वहाँ मुझे html कोड नही मील रहा ,और Esinps में ५ मिनट का रिकॉर्डिंग भी डाउनलोड करवाना चाहु तो एक -डेढ़ घंटा लग जाता हैं ,और मैं चाहती हूँ की कम से कम समय में अधिक से अधिक अच्छी और बड़ी ऑडियो मैं उपलब्ध करवा सकू।

इसलिए आज आप सभी से मेरी गुजारिश हैं की कृपया मेरी मदद करे और मुझे ब्लॉग पर ऑडियो डालने की अच्छी ,सरल विधि बताये।

सधन्यवाद ।

सौ . राधिका बुधकर

Tuesday, August 26, 2008

ध्रुपद एक समृध्द गायन शैली


ध्रुपद समृद्ध भारत की समृद्ध गायन शैली हैं ,प्राय : देखा गया हैं की ख्याल गायकी सुनने वाले भी ध्रुपद सुनना खास पसंद नही करते। कुछ वरिष्ठ संगीतंघ्यो ने इस गौरवपूर्ण विधा को बचाने का बीड़ा उठाया हैं,इसलिए आज भी यह गायकी जीवंत हैं और कुछ समझदार ,सुलझे हुए विद्यार्थी इसे सीख रहे हैं , ध्रुपद का शब्दश: अर्थ होता हैं ध्रुव+पद अर्थात -जिसके नियम निश्चित हो,अटल हो ,जो नियमो में बंधा हुआ हो।
माना जाता हैं की प्राचीन प्रबंध गायकी से ध्रुपद की उत्पत्ति हुई ,ग्वालियर के महाराजा मानसिंह तोमर ने इस गायन विधा के प्रचार प्रसार में महत्वपूर्ण भूमिका निभाई,उन्होंने ध्रुपद का शिक्ष्ण देने हेतु विद्यालय भी खोला। ध्रुपद में आलापचारी का महत्त्व होता हैं,सुंदर और संथ आलाप ध्रुपद का प्राण हैं ,नोम-तोम की आलापचारी ध्रुपद गायन की विशेषता हैं प्राचीनकाल में तू ही अनंत हरी जैसे शब्दों का प्रयोग होता था ,बाद में इन्ही शब्दों का स्थान नोम-तोम ने ले लिया . शब्द अधिकांशत:ईश्वर आराधना से युक्त होते हैं,गमक का विशेष स्थान होता हैं इस गायकी में । वीर भक्ति श्रृंगार आदि रस भी होते हैं ,पूर्व में ध्रुपद की चार बानियाँ मानी जाती थी अर्थात ध्रुपद गायन की चार शैलियाँ । इन बानियों के नाम थे खनडारी ,नोहरी,गौरहारी और डागुर ।
आदरणीय डागर बंधू के नाम से सभी परिचित हैं ,आदरणीय श्री उमाकांत रमाकांत गुंदेचा जी ने ध्रुपद गायकी में एक नई मिसाल कायम की हैं,इन्होने ध्रुपद गायकी को परिपूर्ण किया हैं,इनका ध्रुपद गायन अत्यन्त ही मधुर, सुंदर और भावप्रद होता हैं, इन्होने सुर मीरा आदि के पदों का गायन भी ध्रुपद में सम्मिलित किया हैं । श्री उदय भवालकर जी का नाम युवा ध्रुपद गायकों में अग्रगण्य हैं,आदरणीय ऋत्विक सान्याल जी,श्री अभय नारायण मलिक जी व कई श्रेष्ठ संगीत्घ्य ध्रुपद को ऊँचाइयो तक पहुँचा रहे हैं ।

Monday, August 25, 2008

सुर न सधे क्या गाऊ मैं ?


सुर ना सधे क्या गाऊ मैं?सुर के बिना जीवन सुना ............सुर ना सधे ?
कितना सुंदर गीत हैं न!और कितनी सुन्दरता से एक गायक की मनोवय्था का वर्णन हैं ।
सुर की महिमा अपार हैं ,सम्पूर्ण जीव सृष्टि मैं सुर विद्यमान हैं ,उसी एक सुर को साधने में संगीत्घ्यो की सारी आयु निकल जाती हैं ,पर सुर हैं की सधता ही नही हैं । कहते हैं ........
" तंत्री नाद कवित्त रस सरस नाद रति रंग ।
अनबुढे बूढे,तीरे जो बूढे सब अंग । "

अर्थात - तंत्री नाद यानि संगीत,कविता आदि कलाए ऐसी हैं की इनमे जो पुरी तरह से डूब गया वह तर गया और जो आधा-अधुरा डूबा ,वह डूब गया अर्थात उसे यह कलाए प्राप्त नही हो सकी ,वह असफल हो गया ।
सच हैं ,कला सीखना,कला से प्रेम करना एक बात हैं ,पर कला की साधना करना दूसरी बात!एक बार पक्का निर्णय हो गया की हमें यह कला सीखनी हैं तो उस कला के लिए अपना सम्पूर्ण जीवन समर्पित किए बिना काम नही चलता,सब कुछ भूल कर दिन रात एक करके रियाज़ करना होता हैं ,साधना करनी पड़ती हैं ,तपस्या करनी पड़ती हैं । तब कही जाकर सुर कंठ में उतरता हैं ,हाथो से सृजन बनकर वाद्यों की सुरिल लहरियों में बहता हैं ।

कलाकार होना कोई सरल काम नही। आप चाहे लेखक हो,संगीतघ्य हो,चित्रकार हो ,उस विधा में आपको स्वयं को भुला देना होता हैं,और एक बार जब ये कलाए आपको अपना बना लेती हैं,जब आप इनके आनंद में खो जाते हैं ,तो दुनिया में कोई दुःख नही रहता ,कोई मुश्किल नही रहती ,आप योगियों,मनीषियों की तरह आत्मानंद प्राप्त करते हैं । जीवन सुंदर -सरल और मधुर हो जाता हैं। इन कलाओ के नशे में जो डूब गया उसके लिए नशा करने की जरुरत ही नही रह जाती,सुर सुधा से बढ़कर कोई सुधा नही ,कला सुधा ही सबसे सरस सुधा हैं।
इन कलाओ जब कृपा होती हैं ,तो सारे संसारी जनों का प्रेम मिलता हैं,तभी तो यह कलाए स्वयं ईश्वर को भी प्रिय रही हैं ।कंठ से जब सुर सरिता बहती हैं तो नही गाना पड़ता "सुर ना सधे क्या गाऊ मैं ?"बस उसके लिए जरुरी हैं साधना अर्थात रियाज़ !

गायक की फोटो //www.math.toronto.edu से साभार

Saturday, August 23, 2008

बंसी की स्वर यात्रा


बंसीधर कृष्ण कहनैया। भगवान श्रीकृष्ण को इस नाम से पुकारा जाता हैं,जैसे बंसी और कृष्ण एक दुसरे के पर्याय हो ।
इस बंसी के जन्म के संबंध में महाकवि कालिदास ने कुमार सम्भव में कल्पना की हैं कि , भौरों द्वारा छिद्रित वंश - नलिका में वायु के प्रवेश से उत्पन्न मधुर ध्वनी को सुनकर किन्नरों ने उसे वाद्य के रूप में प्रचलित किया । यह वाद्य बहुत पुराना हैं,भारत के नाट्य शास्त्र में भी वंशी का वर्णन हैं , महाभारत ,श्रीमत्भागवत में भी वंशी या बांसुरी का वर्णन हैं ,सूरदास ने लिखा हैं ,
"मेरे स्वव्रे जब मुरली अधर धरी
सुनी थके देव विमान । सुर वधु चित्र समान ।
गढ़ नक्षत्र तजत ने रास । यहीं बंशे ध्वनी पास ।
चराचर गति गई विपरीत । सुनी वेणु कल्पित गीत ।
झरना झरत पाषाण । गंधर्व मोहे कल गान । "

आगे पद और भी लंबा हैं ,कितना सुंदर उनके बंसी वादन का वर्णन हैं ,भगवान श्रीकृष्ण बांसुरी के प्रथम घ्यात वादक और श्रेष्ठ संगीत्घ्य के रूप में जाने जाते हैं ।

उनके बाद कई हज़ार वर्षो तक बांसुरी को वह प्रेम नही मिला ,सन १९११ में स्वर्गीय पन्नालाल घोष का जन्म हुआ,उन्होंने बांसुरी पर शास्त्रीय संगीत का वादन करके उसे पुनः:प्रतिष्ठापित किया , इसके पूर्व बांसुरी का प्रयोग सिर्फ़ चित्रपट संगीत और लोक संगीत में होता था । उनके बाद पंडित रघुनाथ सेठ ,पंडित विजय राघव राव ,पंडित भोलानाथ मिश्र ,का नाम श्रेष्ठ बांसुरी वादकों में आता हैं

पंडित हरिप्रसाद चौरसिया के नाम से कौन अपरिचित हैं,उनके नाम के अनुसार ही उन्हें हरी से ही बांसुरी वादन का मानो प्रसाद मिला ,उन्होंने बांसुरी की हर फूक में स्वर्गीय स्वर भर दिया,उनके ही कारण बांसुरी वादन आज जनसामान्य में अत्यन्त लोक प्रिय हैं ।

आज अन्य कई युवा कलाकार सुंदर बांसुरी वादन कर रहे हैं ।










कृष्ण फोटो -http://image03.webshots.com/से साभार

Wednesday, August 20, 2008

साम से उपजा संगीत


संसार में ऐसा कोई प्राणी नही हैं जिसे संगीत से प्रेम हो,जिसे सुरीले गीतों को सुनना पसंद हो,सात स्वर, जिसे स्वर्गीय आनंद में डुबो देते हो ,कह्ते हैं मुग़ल शासक औरंगजेब संगीत से घृणा करता था,संगीतकारों को दंड देता था,कहानी यहाँ तक हैं कि, उस समय के संगीतकारों ने एक बार एक अर्थी लेकर जुलुस निकाला,जब राजअधिकारियो ने उनसे पूछा कि यह अर्थी किसकी हैं और इसे लेकर पुरे शहर में जुलुस निकलने से क्या अभिप्राय हैं?तो उन संगीतकारों ने जवाब दिया,"यह अर्थी संगीत की हैं,और हम इसलिए जुलुस निकाल रहे हैं ताकि औरंगजेब को यह पता चल सके कि उसके राज्य में संगीत कि क्या दशा हुई हैंपर सच यह हैं कि औरंगजेब को भी संगीत प्रिय था और वह संगीत सुना करता था

जिस संगीत कि माया ने किसी को मोहने से नही छोड़ा वह संगीत उपजा कहा से और कैसे यह कौन नही जानना चाहेगा?

कहते हैं कि सर्व सृजक ब्रह्म देव ने संगीत कला का भी सृजन कियाउनसे यह कला माता वीणापाणी को प्राप्त हुई ,माता शारदा ने यह कला नारद मुनि को दी ,कुछ मानते हैं कि, शिवजी ने यह कला नारद को दीशिवजी ने माता पारवती की शयन मुद्रा को देखकर रुद्रवीणा की रचना की,उनके मुख से हिंडोल,मेघ,दीपक,व् श्री राग उत्पन्न हुए ,व् माता पारवती के मुख से कौशिक राग उत्प्प्न हुआ.
फारसी की एक कथा के अनुसार एक बार हजरत मूसा पहाडो पर घूम रहे थे,तो उन्हें एक पत्थर दिखाई दिया। उन्होंने उस त्थर पर अपने असा से वार किया,तो उस पत्थर में सात छिद्र हो गए,सात छिद्रों से सात धारा निकली,इन्ही जलाधाराओ की आवाज से हज़रत मूसा ने सात स्वरों कि रचना की।

कुछ विद्वानों का कहना हैं की संगीत की उत्पत्ति पशुपक्षियों की आवाजों से हुई,मोर से सा,चातक से रे ,बकरे से ,कौवे से ,कोयल से प,मेंढक से ,और हाथी से नी स्वर उत्पन्न हुए

पाश्चात्य विद्वान् फ्रायड के मतानुसार संगीत की उत्पप्ति सहज मनोविघ्यान के आधार पर हुईअर्थात यह विद्या अन्य बातो की तरह,सहज रूप से मानवको आई

कुछ के मतानुसार संगीत की उत्पत्ति ओमकार से हुई

हम सभी ने चारो वेदों का नाम तो सुना ही हैं ,चारो वेदों में से सामवेद,गानवेद हैं , सामवेद में कई ऋचा हैंउनका सस्वर गान कैसे किया जाए? यह दिया हुआ हैं ,सामगान की कुछ ऋचा तीन- चार स्वरों मेंहैं,परन्तु इसमे ही सात स्वरों के साथ ऋचाओ का गान भी दिया हुआ हैं, अत:साम से ही संगीत की उत्पत्ति हुई यह कहने मैं कोई हर्ज़ नही हैं

ऑर्केस्ट्रा यानि...कुछ एक्स्ट्रा

आप सभी ऑर्केस्ट्रा के नाम से तो परिचित होंगे ही,आप में से बहुतो ने कोई कोई ऑर्केस्ट्रा सुना ही होगा,वैसे तो आजकल हर छोटे- बड़े फंक्शन में ऑर्केस्ट्रा दिखाई सुने देता हैं,बेटी की शादी हो या,स्कूल में पेरेंट्स डे की मीट,ऑर्केस्ट्रा होना आम बात हैं,कभी स्कूल के वार्षिक उत्सव में ,कभी किसी होटल में आप आसानी से ऑर्केस्ट्रा सुन सकते हैं ,पिछले कुछ समय से लोगो का ऑर्केस्ट्रा की और रुझान बड़ा हैं,इस कारण बड़ी संख्या में अलग अलग नामो से,बड़े बड़े संगीतकारों द्वारा निर्देशित,ऑर्केस्ट्रा के ध्वनी मुद्रण बाज़ार में बिकने लगे हैंजिसमे से कई बहुत लोकप्रिय हुए हैं,रिलेक्सेशन नाम का आदरणीय पंडित विश्वमोहन भट्ट द्वारा संगीत निर्देशित- संयोजित ध्वनी मुद्रण काफी लोगो ने पसंद किया था
ऑर्केस्ट्रा के बारे में सबसे पहली बात तो यह कि ऑर्केस्ट्रा का हिन्दी नाम वाद्यवृन्द हैं,आज से कई कई वर्षो पहले महर्षि भरत हुए,जो नाट्य कला और संगीत के महान विद्वान हुए ,उनका ग्रन्थ नाट्य और संगीत सम्बन्धी पहला ग्रन्थ कहलाता हैं ,उनके समय में नाट्य के साथ ऑर्केस्ट्रा अर्थात वाद्यवृन्द का प्रयोग होता थामुगलकाल में ऑर्केस्ट्रा कि स्थिति कुछ खास अच्छी नही रही ,उस समय कलाकारों ने बंदिश को वाद्यों पर सामूहिक रूप से बजाना आरम्भ किया,एक ही गत या बंदिश सब कलाकार बजाते थे

समय बदला,पिछले कुछ दशको में ऑर्केस्ट्रा या वाद्यवृन्द को नया जीवन प्राप्त हुआ,अलग अलग थियेटर व् कम्पनियों व् व्यक्तियों के प्रयत्नों से ऑर्केस्ट्रा को नवीन दिशा मिली ,
स्वर्गीय उस्ताद अल्लाउद्दीन खान साहब का मैह बेंड काफी उम्दा ऑर्केस्ट्रा कि धुनें बजाता था ,इसमे भारतीय वाद्यों के साथ पाश्चात्य संगीत के वाद्यों का भी उपयोग किया जाने लगा,बाबा अल्लाउद्दीन खान साहब ने स्वयं भी कुछ नए वाद्य बनाकर इस वाद्यवृन्द में शामिल किएवर्तमान में भी यह वाद्यवृन्द काफी जगह प्रस्तुतिया दे रहा हैं
सिनेमा ने भारतीय संगीत को बहुत कुछ दिया,वाद्यवृन्द को सिनेमा संगीत में महत्वपूर्ण स्थान मिला,तिमिर बरन का भी भारतीय वाद्यवृन्द में महत्वपूर्ण योगदान रहा,आदरणीय पंडित रविशंकर ने ऑर्केस्ट्रा के लिए अविस्मर्णीय कार्य किया,उन्होंने विभिन्न देशो लिए संगीत रचना की,उनके बनाये ऑर्केस्ट्रा की रचना पूर्ण रूप शास्त्रीय संगीत पर आधारित थी साथ ही कई रचना लोक व् पाश्चात्य संगीत पर आधारित भी रही,कहानी, थीम पर आधारित रचना बनाने का श्रेय उन्ही को जाता हैं,इस तरह परंपरागत ऑर्केस्ट्रा पाशचात्य, लोक व् शास्त्रीय संगीत सज्ज होकर व् इन सबकी समीलित धुनों में रचकर,कल्पना के विविध रंगों से युक्त होकर कुछ एक्स्ट्रा बना . आज भी कई नए युवक युवतिया इस क्षेत्र में अच्छा काम कर रहे हैं

Tuesday, August 19, 2008

फ्यूजन का कन्फ्यूजन

लीजिये जनाब,अब जमाना गया हैं फ्यूजन म्यूजिक का,जिसे देखो फ्यूजन कर रहा हैं,फ्यूजन सुन रहा हैं,बडे पिता की संतान हो,या नामचीन कलाकार,संघर्षरत कलाकार हो या ,नौसिखा गायक वादक,सब फ्यूजन की धुन में लगे हैं,आलम यह हैं की चारो दिशाओ में फ्यूजन हो रहा हैं और हम कन्फ्यूज़ हो रहे हैं.
आख़िर हैं क्या बला यह फ्यूजन ???आईये आज जानते हैं फ्यूजन के बारे में

दो सुंदर संगीत धाराओं का सुंदर सम्मिश्रण होता हैं फ्यूजन,जैसे दो या तीन नदिया मिल कर त्रिवेणी संगम बनती हैं और वह स्थान तीर्थ बन जाता हैं वैसे ही दो-तीन संगीत शैलियों के गुण मिलाकर,उनकी अच्छी बातो का समावेश किसी एक रचना में कर उसका अत्यन्त ही मधुर,प्रभावी प्रस्तुतिकरण होता हैं फ्यूजन

फ्यूजन में स्वर माधुर्य होता हैं,कल्पनाशीलता होती हैं,लयात्मकता होती हैं,और वह बात होती हैं जो श्रोताओ के ह्रदय को छु जाए,जो संगीत की अधिक समझ रखने वालो को भी अपनी भावपूर्ण स्वर लहरियों में भिगो दे,साथ संगीत के जानकारों का ह्रदय भी अपनी कलात्मकता और गुनात्म्क्ता के बलबूते लुभा ले।

पर आजकल देख रही हूँ ,कि फ्यूजन के नाम पर भोली भोली सुनकार जनता को जाने क्या-क्या परोसा जा रहा हैं,कई बार तो लगता हैं कही की इट कही का रोड़ा भानुमती ने कुनबा जोड़ा , तो कभी मिनिट सुनने के बाद ही यह म्यूजिक बंद कर देने का मन होता हैं,
प्रभावशील रचना होती हैं, उस रचना को कल्पना के हिलोरो में झुलाया जाता हैं
,नही बोलो को सुंदरता से सजाया जाता हैं, ताल के छन्दों से खेला जाता हैं,होती हैं तो तीव्र लय के साथ भागम भाग।
सच कहा जाए तो फ्यूजन दो संस्कृतियों मिलन हैं ,दो परम्पराओ का मेल हैं,मुझे फ्यूजन से कोई आपत्ति नही,आपत्ति फ्यूजन के कन्फ्यूजन होने से हैं.हमारे कई श्रेष्ठ शास्त्रीय संगीत्घ्यो ने सुंदर फ्यूजन किया हैं ,उसे जरुर सुने, समझे,ताकि आप फ्यूजन के इस दौर में कन्फ्यूज़ हो जाए।

Monday, August 18, 2008

गज़ल:सुंदर सांगीतिक विधा

संगीत से चाहे कितना ही अल्प परिचय क्यों हो!शास्त्रीय संगीत की राग रचना,आलाप,सुरताल का ग्यान हो, हो,लोक संगीत की सरसता,प्रवाहशीलता में मन बहे बहे,फ़िल्म संगीतकी सुरीली झंकारों पर पाव थिरके थिरके,पर गज़ल वह विधा हैं कि हर किसी को पसंदआती हैं,हर किसी को अपनी सी लगती हैं,हर कोई सुनना पसंद करता हैं,गुनगुनाना पसंदकरता हैं,सच कहे तो कभी यह अपने ही दिल कि बात सुनाती सी,कहती सी लगती हैं इसलिएआज जब कई अन्य सांगीतिक विधाये अपने अस्तित्व के लिए संघर्ष कर रही हैं,तब गज़लहर मन छा गई हैं,हर दिल पर राज कर रही हैं

गज़ल के शेर अत्यन्त भावपूर्ण,अर्थपूर्ण होते हैं,साथ ही चमत्कारिक भीकल्पनाओ कासमुन्दर ही मानो गज़ल में समाया होता हैं.शास्त्रीय व् सुगम संगीत इन दोनों के सुंदर तत्वोंका मिश्रण गज़ल में होने से वह लोकप्रिय हुई हैंअब यही गज़ल देखे......
"दुनिया जिसे कहते हैं,जादू का खिलौना हैं,मिल जाए तो मिट्टी हैं,खो जाए तो सोनाहैं"।
कितनी अर्थपूर्ण,रंजक,सुंदर लिखी गई हैं,और जगजीत सिह जी और चित्रा जी ने इसे गया भी बखूबी हैं

गज़ल गायन की तीन शैलिया हैं -बनारसी,दिल्ली,व् लखनवी शैली
बनारसी गज़ल प्रौढ़ गज़ल कहलाती हैं,तो दिल्ली की गज़ल अधिक कल्पना युक्त औरविस्तार पूर्ण होती हैं ,लखनवी गज़ल के तो क्या कहने!पुरबी अंग की इस गज़ल में बारीक़-बारीक़ हरकतों और मुर्कियो का बाहुल्य होता हैं जिससे गज़ल गायन और सुंदर हो जाता हैं
आज से लगभग ७० -८० वर्ष पूर्व अफजल हुसैन नगीना इन्होने गज़ल गायन प्रारम्भकिया,उस्ताद बरकत अली खान साहब ने भी शास्त्रीय गायन के साथ गज़ल गायन प्रारम्भकिया , आदरणीय बेगम अख्तर साहिबा ने गज़ल गायन को लोकप्रिय करने में बहुत बड़ायोगदान दिया ,उनके बाद मलिका पुखराज का नाम भी गज़ल गयिकाओ में लिया जाताहैं,गज़ल गायकी को नए रूप में श्री कुंदनलाल सहगल ने पेश किया,उस्ताद तलत महमूद केनाम से शायद ही कोई अपरिचित हैं ,उस्ताद मेहँदी हसन ,जगजीत सिह जी ने अच्छी अच्छीस्वर संयोजना कर,सुंदर गजलो को अभूतपूर्व ढंग से प्रस्तुत किया
उस्ताद गुलाम हुसैन ने अपनी गजलो में शास्त्रीय संगीत कि सरगमो का समावेश कर एकनए ही अंदाज़ में गज़ल गाई .मिर्जा ग़ालिब साहब कि लिखी गजले तो समुद्र में मिलने वालेसच्चे मोतियों जैसी सुंदर,कलात्मक हैं ,उनकी लिखी "हजारो ख्वाहिशे इसी कि हर ख्वाहिश पे दम निकले बहुत निकले मेरे अरमान फ़िर भी कम निकले" । जाने कितने लोगो कि पसंदिता गज़ल हैं गज़ल कि लोकप्रियता का अंदाजाहम इस बात से ही लगा सकते हैं कि आज मराठी,हिन्दी,सिन्धी,गुजराती,अंग्रेजी आदिभाषाओ में भी गज़ल का लेखन हो रहा हैं ,

आदरणीय जगजीत सिह जी ने गाई गज़ल "वो कौन है , दुनिया में जिसे , गम नहीं होता
किस में खुशी होती है , मातम नहीं होता"कितनी सहजता से जीवन कि व्याख्या कर जाती हैं
सच हैं गज़ल अपने आप में पूर्ण होती हैं,तभी तो ये बात भी गज़ल में ही कही जा सकती हैं-
लब पे आती हैं दुआ बनके तमन्ना मेरी
ज़िन्दगी शम्मा कि सूरत हो खुदा या मेरी

हो मेरे दम से यूँ ही मेरे वतन कि जीनत
जिस तरह फूल से होती हैं चमन कि जीनत

ज़िन्दगी हो मेरी परवाने कि सूरत या रब
इल्म कि शम्मा से हो मुझको मोहब्बत या रब

हो मेरा काम गरीबों कि हिमायत करना
दर्द मंदों से ज़ईफों से मोहब्बत करना

मेरे अल्लाह बुराई से बचाना मुझको
नेक जो राह हो उस राह पे चलाना मुझको