Tuesday, July 22, 2008

संगीत रस सुरस

भारतीय संगीत अलौकिक हैं,भारतीय शास्त्रीय संगीत पध्दति में राग गायन की परम्परा हैं, जो विश्व की किसी भीअन्य संगीत पध्दति में नही हैं,राग शब्द रंज धातु से उत्पन्न हुआ हैं.मेदिनी कोष में कहा गया हैं-"रंजनो रागजनने ,रंजनं रक्तचन्दने" अर्थात - रंजन शब्द ,रंग उत्पन्न करने और लालचंदन के अर्थ में पर्युकत होता हैं.इस प्रकार राग शब्द के अभीश्रेयार्थ -"रंग और रंगे जाने की प्रक्रिया हैं,"राग वह जो अपने रंग में रंग दे.ऐसा भी कहा गया हैं "रंजको जन्चित्तानाम"अर्थात जो जनों के ,लोगो के श्रोताओ के चित्त का रंजन करे वह राग हैं,साथ ही राग का गायन,वादन, गायन -वादन को अधिक व्यवस्थित व् क्रमबध्ध भी बनाता हैं,गायन वादन को एक मर्यादा में भी बाँधता हैं।
गंभीर आलापचारी,सुन्दर विस्तार,साहित्यिक रूप से श्रेष्ठ बंदिश,लय,ताल व छंदों से युक्त गत,व् गायन वादन कीअन्य क्रियाए गुनी कलाकार के गायन व् वादन में स्वत: समाहित होती हैं.भारतीय शास्त्रीय संगीत में नौ रसो केराग हैं,साथ ही ऋतु विशेष के भी कई राग हैं जैसे वसंत,मल्हार के प्रकार आदि.मजे की बात यह हैं की सुबह सेलेकर रात तक के लिए और पुरी रात के लिए भी (अलग अलग प्रहर के )अलग अलग राग हैं,कहते हैं-"यथा कालेसमारब्धम गीतं भवति रंजकम" ।

मेरे सामने प्रश्न यह हैं की राग सम्पदा से युक्त समृध्ध भारतीय शास्त्रीय संगीत को बहुत ही कम लोग ही सुनना क्युपसंद करते हैं,क्या ये संगीत इतना क्लिष्ट हैं की वह साधारण जनता की समझ के परे की वस्तु बन गया हैं?इतनाजटिल हैं की वह उन्हें रस प्रद संगीत ही नही लगता?या यह आजायबघर में सजाये जाने के लिए छोड़ दिया गयाहैं,रस प्रद भावपूर्ण शुद्ध -शुध्ध्तम शास्त्रीय संगीत में इसी क्या कमी रह गई हैं की लोग उसे सुनना ही नही चाहते,इन गिने कुछ वरिष्ठ कलाकारों के नाम छोड़ दे तो जाने कितने ही इसे संगीतकर हैं जो इस धरोहर को बचने के लिए अकेले ही जूझ रहे हैं।

मैंने इस सम्बन्ध में कई युवा व् वृध्द जनों से बात की,जानना चाहा की क्यु उन्होंने अन्य सभी की तरह इस औरध्यान देन उचित नही समझा,युवा वर्ग की और से पहला उत्तर मिलाजिसे सुनकर मुझे हर बार उतनी ही हँसी आईवह था-"क्या रखा क्या हैं इस अ आ उ इ में?तानपुरा उठाओ और चिल्लाने लगो अ आआआआआअ दूसरा उत्तर थाकुछ समझ में तो आता नही हैं क्या कह रहे हैं,क्या सुना रहेहैं,और सबसे बड़ी बात हम वही सुनना चाहते हैं जो ट्रेन्ड़में चल रहा हैं,हम जिसे जोर जोर से सुन सके,साथ गा सके,उस पर नाच सके,पार्टी में लगा सके .........."
बड़े -बुजुर्ग व्यक्तियों ने एक ही बात कही समझ नही आता!

सागर में उठने वाली लहरे कितनी गति से किनारे तक आती हैं,क्या हम साधारण लोगो में से हर एक को इसकापता हैं?बारिश की बुँदे गोल होती हैं या चपटी?सूरज की सुंदर सुनहली किरणे कितने वर्षो से चलकर हमारे पास आरही हैं,यह हर उस किरण के बारे में पता होता हैं जिसे हम आज देख रहे हैं,अपने हाथो से उसे छूने की कोशिश कररहे हैं,दूर से हवा के साथ किसी फुल की खुशबू बहती चली आती हैं,क्या हम उससे कहते हैं की बताओ तुम किसफुल की खुशबू हो,यह समझ आना ही चाहिए तभी हम तुम्हे सुन्घेंगे?हमारे देश में कई जातिया,समुदाय हैं सभी मेंपकाया जाने वाला भोजन अलग अलग हैं,साथ ही कई देशो के भोजन का स्वाद हम रोजमर्रा की जिंदगी में लेतेहैं,तब क्या हमें उन सारे भोजन की निर्माण प्रक्रिया के बारे में पता होता हैं?कितने ही लोगो को गाड़ी कार चलानानही आता,हम में से कितने लोगो को रेल,विमान चलाना आता हैं?क्या हम उनमे बैठे से चुकते हैं।

हम उन सागर की लहरों को देखने का उनमे खेलने का आनंद लेते हैं,बारिश में भीगते हैं,सूरज की रोशनी के लिए न जाने कितने धन्यवाद उसे देते हैं,हवा के साथ आती फूलो की खुशबू सूंघ खुश हो जाते हैं,उसे बयार कहते हैं,हर तरह का भोजन खाते हैं बहुत सा पसंद भी करते हैं,क्युकी हम इन सबका आनंद लेना जानते हैं,आनंद लेना चाहते हैं।

फ़िर राग से शोभायमान शास्त्रीय संगीत के साथ यह अन्याय क्यु?जिसे रंजको जनचित्तानाम कहा गया हैं वहीरागदरी संगीत इतना अरंजक, अप्रभावी क्यु लग रहा हैं?क्युकी शास्त्रीय संगीत के बारे में बात बिल्कुल उलटी होरही हैं,हम इसका आनंद लेना नही जानते क्युकी लेना ही नही चाहते,आ आ उ उ कह कर इसे पवित्र विधा काअपमान भर कर देते हैं।

हर चीज़ इन्सान को जनमत: नही आती,उठाना,बैठना,चलना दौड़ना,खाना पीना भी सीखना पड़ता हैं,और हर बातसिखने के लिए जानने के लिए सीखना पड़ता हैं लेना,और जब आप दिलचस्पी लेते हैं तो सिख भी जाते हैं समझ भी जाते हैं.भारतीय शास्त्रीय संगीत नही इतना जटिल हैं न इतना रुखा की कोई अघ्यान वश उसका आनंद भी न उठा सके,उससे प्रेम भी न कर सके।

इसलिए यह कहने वालो से कि"समझ ही नही आता",मेरा अनुरोध हैं कि जरा सुने तो,उससे जुड़े तो, कभी जब कुछनया सुनने का मन हो तो किसी कलाकार का कोई राग सुन कर तो देखे,कभी उस के साथ गुनगुना कर तो देखे,थकेहारे जब घर लौटे,आँखे मूंद कर कुछ देर यह संगीत सुन कर देखे फ़िर कहे आनंद नही आता, समझ नही आता,आपजब सुनेगे,तभी तो समझेंगे,और आपके समझने से पहले ही यह आपको आत्मानंद देगा,अपना बना लेगा.इसलिएकहा गया हैं न कि"संगीत रस सुरस "और भारतीय होने के नाते भारत की सुंदर परम्पराओ को पोषित करने कीसहेजने की हम भारतीयों की ही जिम्मेदारी हैं न!सिर्फ़ पार्टी में नाचना,उलुल जुलूल गानों पर थिरकना हमारीकर्त्वय्निष्ठा का परिचायक भी तो नही हैं न,इसलिए आगे बड़े शास्त्रीय संगीत को सुने समझे सीखे और गाये
"संगीत रस सुरस मम जीवनाधार"

वर्तमान में संगीत की स्तिथि

हमारे देश में प्राचीन काल से प्रचलित ६४ महत्वपूर्ण कलाओ में से एक सर्वोत्कृष्ट कला मानी गई हैं संगीत,संगीत जो मन का रंजन करे,संगीत जो आत्मा को अभिवयक्त करे,संगीत जो ईश्वरीय कला हैं। संगीत जो कण कण, अनु अनु में व्यापत हैं,पानी की उठती गिरती लहरों में संगीत हैं,झरने की कल कल चल चल में संगीत हैं,पत्तो की फड फड में संगीत हैं,बच्चो की मधुर बोली में संगीत हैं,पंछियों के स्वर में संगीत हैं, प्रकृति में हर कही संगीत हैं,सम्पुरण वायुमंडल में संगीत की अवय्क्त ध्वानिया निरंतर गुंजायमान हो रही हैं,चराचर जगत के प्रत्येक तत्व में संगीत हैं.

प्राचीन ऋषि मुनियों ने सृष्टि की उत्पत्ति ओमकार रूपी नादब्रहम से मानी थी,

अनादिनिधनम ब्रहम शब्द्त्वायाद्क्षरम
विवर्तते अर्थभावेन प्रकिया जग्तोयत:
और इसी नादब्रहम से संगीत की उत्पत्ति मानी गई हैं.

चारो वेदों में से सामवेद से संगीत की उत्पत्ति मानी गई हैं।

हमारे देश में शास्त्रिय संगीतकी दो धाराए प्रचलित हैं,एक उत्त्तरभारतीय शास्त्रीय संगीत एक दक्षिणभारतीय शास्त्रीय संगीत,दोनों ही पद्ध्तिया अत्यन्त समृध्ध व् श्रेष्ट हैं,साथ ही लोक संगीत,सुगमसंगीत,नाट्य संगीत,भजन आदि अन्य विधाये भी प्रचलित हैं,भारत ऐसा देश हैं जहा परंपराओ mulyo मूल्यों का अपना विशिष्ट स्थान हैं,हमने हमेशा ही पूर्वजो के दिए संस्कार,व् ग्यान की विरासत कोसहेज कर संभाल कर रखा हैं,आज भी कितने ही गायक वादक इस कला को आत्मसात व् परिमार्जितकरने में लगे हैं,कुछ १००एक साल पहले भारतीय चित्र संगीत का आगमन हुआ,कई श्रेष्ट संगीतदिग्दार्शको ने इन फिल्मो में संगीत दिया,व् शास्त्रीय संगीत को लोकप्रियता के नए शिखरों परपहुचाया,वह फ़िल्म संगीत भी हमारी संगीतात्मकता का,लयात्मकता का,गुणात्मकता का उत्कृष्टनमूना था।

पिछले कुछ वर्षो से खास ९० के दशक से फ़िल्म संगीत के स्तर में बहुत ही गिरावट आई हैं,जहा कभीमीरा के भजन गूंजा करते थे,पवित्र प्रेम के अफसाने हुआ करते थे,देवो की वंदना हुआ करती थी,व्हीअश्लील शब्दों की भरमार हैं,जहा स्वर,ताल ,लय का सुंदर सम्मिश्रण हुआ करता था की श्रोता सुनकर हीझूम उठे,वही बेसुरपनहैं,गायक को स्वर से तात्पर्य हैं , श्रुतियों,रागों से प्रेम.फ़िल्म संगीत धिनचकधिनचक की लय पर बेचा जा रहा हैं,और आज के श्रोता उसे खरीद रहे हैं,संगीत में कही कुछ बचा हैं तोवह हैं लय,सिर्फ़ फ़िल्म संगीत ही नही बाज़ार में गीतों की एल्बम बन रही है रिमिक्स बन रहे हैं,खरे खरेशब्दों में कहा जाए तो पुराने सुंदर गीतों को बुरी तरह तहस नहस किया जा रहा हैं।अपवाद स्वरुप कुछएक गाने अच्छे बन रहे हैं।


संगीत की समझ दिनों दिन श्रोताओ में कम होती जा रही हैं ,तेज कार चलाते चलाते भागती हुई लय सेमिलते भागते,दौड़ते गाने,जिनमे उचित कविता हैं, सुस्वर गायन,कोई चीख के गा रहा हैं,कोई नाकमें गा रहा हैं,कोई रो रहा हैं,और जनता वाह वाह किए जा रही हैं,रिकॉर्ड पर रिकॉर्ड बन रहे हैं,बिक रहेहैं,ऐसे कलाकार पैसे की बोरिया पर बोरिया उठा रहे हैं,पर इन सब में हमारा संगीत कहा हैं?वह संगीत जोपरब्रह्म स्वरुप था,जिसे सुनकर तमाम दुःख अवसाद रोग दूर हो जाते थे,वह संगीत जो अपनी भावपुर्नतासे श्रोता को आनंद की चरमसीमा पर पंहुचा देता था ,रुला देता था.क्या हो गया हैं लोगो की पसंद को?एकभेडचाल से सब चल रहे हैं,कम ही लोग भारतीय संगीत को जानना चाहते हैं,समझाना चाहते हैं,औरजिन्हें इसकी समझ हैं वह इसकी स्थिति पर रो रहे हैं,कभी कभी कुछ गाने सुनकर तो लगता हैं की माताशारदा के कानो में रुई के फाहे लगा दिए जाए नही तो गायन वादन नर्तन और अन्य सभी कलाओ कीसाम्रघ्यी अपनी इस दुर्स्थिति को सहन नही कर पायेगी।

आज की युवा पीढी बहुत ही गुनग्राही,व् समझदार हैं,कम से कम से कम वह
- इस क्षेत्र में अपनी जानकारीबढाये,अपने संगीत को समझे,सीखे,जाने,यह उसका दायित्व ही हैं,तभी हम वर्षो से संजोयी गई,पुरखोकी दी हुई इस श्रेष्ट कला को सहेज पाएंगे।
इति