Sunday, August 10, 2008

संगीत शिक्षण प्रणालिया और वास्तविकता


मानवीय जीवन यह शिक्षण का दूसरा नाम हैं,व्यक्ति अपने जनम से लेकर मरण तक कुछ न कुछ सीखता रहता हैं,
वर्तमान समय के बारे में कहे तो यह समय हैं ,विशेषघ्य्ता का,विकास का और विद्वत्ता का। साथ ही समय हैं डिग्री का,प्रमाण पत्रों का और विशेष शिक्षण पद्दतियों का,प्राचीन काल में भारत में गुरु शिक्षण परम्परा प्रचलन में थी,गुरु गृह में विद्यार्थी रहते और वर्षो वर्ष गुरु की सेवा कर घ्यान प्राप्त करते ,समय बदला हमारे देश में विद्यालयीन शिक्ष्ण प्रणाली का आगमन हुआ,इस तरह की शिक्षण प्रणाली से विद्या अर्जन करना सहज और सुलभ हो गया,भारतीय शास्त्रीय संगीत की बात करे तो इस विद्या को ग्रहण करने हेतु ब्रिटिशकाल तक गुरु शिक्षण प्रणाली ही प्रचलित थी,प्राचीन भारत के इतिहास के पन्ने उलट कर देखे तो घ्यात होता हैं की महाराज चंद्र गुप्त विक्रमादित्य के समय के राजभवनों में भी संगीत आचार्यो को विद्यालयो में उच्च वेतन देकर शिक्षण देने हेतु नियुक्त किया जाता था । तक्षशिला व् नालंदा के विश्वविध्यालायो में भी संगीत के अलग विभाग हुआ करते थे,ग्वालियर के महाराज मानसिह तोमर ने भी ध्रुपद गायकी की शिक्षा देने हेतु विद्यालय की स्थापना की थी.परन्तु इन सब प्रयत्नों को उतना यश कभी नही मिला,गुरु शिष्य शिक्षण प्रणाली ही फलती फूलती रही,ब्रिटिश काल में भारतीय संगीत जगत में दो ऐसे गुनीजनो विद्वानों का जनम हुआ जिनके प्रयत्नों ने भारतीय संगीत को अत्यन्त उचाईयो पर पंहुचा दिया,ये दो देवदूत, मसीहा थे पंडित विष्णु दिगंबर पलुस्कर और पंडित विष्णु नारायण भातखंडे। पंडित भातखंडे व् पंडित पलुस्कर के अथक प्रयासों से भारतीय संगीत की विद्यालयीन शिक्षण प्रणाली सुप्रच्लित व् सुप्रसिध्ध हुई,इससे संगीत शिक्षण को उच्च दर्जा मिला,व् जो विद्यार्थी गुरु गृह में रह कर भी वर्षो तक अच्छी शिक्षा से वंचित रह जाते थे,उन्हें सरलता से संगीत शिक्षण प्राप्त होने लगा ।

परन्तु संगीत शिक्षण पध्धति की विद्यालयीन पध्धति के उदय के कारण संगीत शिक्षण के उद्देश्य में अन्तर आ गया,गुरु शिष्य परम्परा में जहा लक्ष्य संगीतकार का निर्माण होता था ,वहा विद्यालयीन संगीत पध्धति में लक्ष्य
संगीत की समझ रखने वाले रसिक श्रोता निर्माण करना हो गया,ऐसा नही था की विद्यालयो की स्थापना के पीछे मात्र इतना ही उद्देश्य था,विद्यालयीन संगीत शिक्षण पद्दति की स्थापना के समय भी विद्यालयो के द्वारा गुनिकलाकारो,गुरुओ व् जानकारों की निर्मिती का ही उद्देश्य था,परन्तु जैसे जैसे संगीत की शिक्षण पध्धति में बदलाव आया वैसे वैसे ही विद्यालयो में दी जाने वाली संगीत की शिक्षा के स्तर,शिक्षण ग्रहण करने वाले विद्यार्थियों के ग्राह्यता के स्तर व् इस शिक्षण के प्रति लोगो की रूचि में अन्तर आने लगा,इस कारण विद्यालयीन संगीत शिक्षण प्रणाली ने शास्त्रीय संगीत के तानसेनो की उत्पत्ति नही वरन कानसेनो की ही उत्पत्ति की।

मूलत: संगीत एक कला हैं,और किसी भी कला को सिखने के लिए उस कला के प्रति प्रेम समर्पण और गूढ़ लगाव की जरुरत होती हैं,विद्यालयीन संगीत सिक्ष्ण प्रणाली में ऐसे विद्यार्थियों ने बहुतायत में शिक्षण प्राप्त किया जिन्हें उस कला के प्रति प्रेम व् विशेष लगाव नही था,परन्तु यह कला पसंद थी,गाना गुनगुनाना उनका छंद था,कुछ थोड़ा सा गाकर परिजनों की वाहवाही लूटना उन्हें इच्छित था,दूसरा यह हुआ की जो इस प्रणाली में जो शिक्षक रहे (मैं विध्यालयिन संगीत शिक्षण के सुरवाती दौर की यहाँ बात नही कर रही )उन्हें संगीत विद्या का दान करना यह एकमात्र साध्य नही था,उन्हें समय समय पर निश्चित तनखाह मिल जाती जिससे उनके परिवार का भरण पोषण आसानी से हो जाता,इस कारण उनको शिक्षण देने में अधिक रूचि नही रही,वह एक कर्तव्य भर रह गया जिसकी पूर्ति उन्हें रोज़ दिन में दो घंटे फला फला राग सिखा कर करनी हैं,निश्चित पाठ्यक्रम इस शिक्षण पध्धति में इसलिए रखा गया था ताकि विद्यार्थी सही समय में उचित शिक्षण ले सके,किंतु पाठ्यक्रम में रागों की भरमार,शास्त्र की जानकारी की अधिकता से संगीत शिक्षण पर बहुत नकारात्मक असर पड़ा,स्तिथि यह हैं की एम्.ए,करने के बाद भी विद्यार्थी सुर में नही गा सकता एक राग का प्रस्तुति कारण ठीक से नही कर सकता,डिग्री मिल जाने से उसे नौकरी मिल जाती हैं और वह अपने ही तरह के शिष्य तैयार करता हैं इससे शास्त्रीय संगीत को बहुत नुकसान पंहुचा हैं।

संगीत एक श्रवण विद्या हैं इसके बारे में कहा जाता हैं-"नाद को सागर अपार, सरसुती ही जाने न पार "अर्थात नाद का सागर अपार हैं और माता सरस्वती भी इसका पार नही जानती,इस कला को श्रेष्ठ कला माना गया हैं,अत: इसका शिक्षण भी श्रेष्ठ गुरुओ द्वारा गुनी शिष्यों को देना आवश्यक हैं,वह भी पूर्ण समर्पण व् प्रेम के साथ। अगर किसी को संगीतकर बनना हैं तो किसी अच्छे गुरु से कुछ वर्ष तक शिक्षण लेकर उचित रीती से साधना करना आवश्यक हैं,कई बड़े बड़े कलाकारों कए भी यही मत हैं.
आज देश भर मैं कई इसी संस्थाए हैं जो गुरु शिष्य प्रणाली से शिक्षण दे रही हैं इनमे आईटीसी संगीत रिसर्च अकादमी,ध्रुपद संसथान भोपाल,नेशनल सेंटर फॉर परफोर्मिंग आर्ट्स आदि का नाम उल्लेखनीय हैं.


छायाचित्र http://www.gandharvamandal.org/से साभार

6 comments:

Udan Tashtari said...

स्वागत है आपका ब्लागजगत में. बधाई.

लावण्यम्` ~ अन्तर्मन्` said...

परिवार के साथ,
साधनारत रहते हुए,
खूब सारी खुशियाँ मनाइयेगा राधिका जी !
हिन्दी ब्लोग सँसार का रोम रोम अब आपके वीणावादन से झँकृत हुआ है !
सस्नेह

- लावण्या

पारुल "पुखराज" said...

5 aalape 7 taane aur raag taiyaar...aaj jis dhang se ghar ghar sangeet vidyalay khuley hain aur exam pass karva kar bachon ko prabhakar,visharad adi ki degree dila rahey hain..bahut afsos hota hai/fir kahin na kahin ye bhi mehsus hota hai ki chlao kuch bhii na honey se kuch hi sahi/aapka lekh acchha lagaa.

Kanuraj said...

बहुत अच्छालिखा है | जय श्री कृष्णा |

Anonymous said...

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nadyaxing said...

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